जानिए आचार्य प्रशांत से हमारी खुशियां दूसरों पर निर्भर क्यों होती है
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आचार्य प्रशांत : हमारी खुशियां दूसरों पर निर्भर क्यों होती है। हमारा सब कुछ ही दूसरों पर निर्भर है। क्या तुम्हारे दुख दूसरों पर निर्भर नहीं है? क्या सिर्फ तुम्हारी खुशी दूसरों पर निर्भर है कोई आकर तुम्हे हँसा सकता है, तो कोई आकर।क्या? के तुम्हें रुला भी सकता है। तुम्हारा अपना है ही क्या उदास होते हो तो दूसरों की वजह से उत्तेजित होते हो तो दुसरो की वजह से ऊबते हो तो दूसरों की वजह से आकांक्षा है तो दूसरों की ओर डर है तो दुसरो से सब कुछ तो दुसरो का ही है।

 

 

 

 

हमारा अपना कुछ है कहा, जब अपना कुछ नहीं होता, उसी स्थिति को गुलामी कहते हैं। तुम जो कुछ भी सोचती हो की पा करके जिंदगी जीने लायक बनती है। तुम देखो न उसे पाने की हसरत दूसरों से ही है कोई पैसा दे दे, कोई प्रतिष्ठा दे दे कोई नौकरी दे दे कोई प्रेम दे दे अपनी हालत कैसी है भिखारियों जैसी कई ओर से कोई बाहर वाला देगा कुछ ऐसा भी है जिसको कहते हो की कहीं से ना मिले तो भी तुम्हारे पास है, कुछ ऐसा भी है इसको कहते हो की देने वाले का धन्यवाद कि उन्होंने दिया ही है। हमारे भीतर ऐसा कोई भाव ही नहीं होता कि मिला है इसलिए हमारे भीतर कृतज्ञता नहीं होती, बस शिकायतें होती है। कभी तुमने गौर किया है की हम शिकायतों से कितना भरे हुए हैं

 

 

हर समय हमारे भीतर एक निराशा, एक कुटा, एक विद्रोह उबलता सा रहता है। लगातार ये लगता रहता है कि कहीं व्यक्त कर दें कि धोखा हुआ, एक खालीपन का भाव रहता है ना सूनापन ये लगता ही नहीं है कि मिला है कुछ जब ये नहीं लगता है कि कुछ मिला है तो लगातार खड़े रहते हो पाने के लिए तू दे दे,

 

 

तुम अगर कभी गौर करो कि हमारा सूनापन कितना घना है। तो हैरत में पड़ जाऊंगा। तुम सड़क पर चल रहे हो एक आदमी आता है जिससे तुम बिल्कुल जानते ही नहीं उससे भी तुम्हें अभिलाषा रहती है कि वो तुम्हे थोड़ी सी स्वीकृति तो दे ही दे तुम सड़क पर चल रहे हो और कोई तुम्हें देखे ही ना तो तुमने बहुत बुरा लगेगा, तुम अनजान लोगों से भी मान्यता चाहते हो ऐसा हमारा भिखारीपन है। तुम बाजार जाकर कोई नया कपड़ा खरीदकर ले आए हो। तुम पहनकर निकलो और कोई जिक्र ही ना करें तुम्हें पसंद नहीं आएगी ये बात

 

 

यही इंसान का अकेला कष्ट है मैं क्यों उपलब्धि नहीं हुई है इसके अलावा कोई कष्ट होता है नहीं इसीलिए जानने वालों ने लगातार जो कहा है न कि संसार दुख है, उसका अर्थ यही है। उन्होंने ये नहीं कहा है कि संसार में कोई दुख है। संसार में दुख तब है जब तुम संसार के सामने याचक की तरह खड़े रहते हो। संसार में दुख तब है जब तुम नहीं हो और बस संसार है और तुम्हें से अपने आप को इकट्ठा करना है। निर्मित करना है टुकड़ा टुकड़ा तब संसार दुख है अन्यथा संसार दुख नहीं है।

 

हम सबका दुनिया से जो रिश्ता है वो बड़ी हिंसा का रिश्ता है। तुम कभी गोर करो तुम कहते हो हम अपने सुख के लिए दूसरों पर निर्भर क्यों है, सोचो की अगर तुम्हें किसी से सुख की उम्मीद हो और हो तुम्हें सुख न दे तो तुम्हारे मन में उस व्यक्ति के लिए कैसे विचार आएँगे। ।दे रहा हूँ । तुम्हें किसी से उम्मीद थी कि वो आज आकर की तुम्हें कुछ देगा उपहार उसने नहीं दिया। तुम्हारे मन में उसके लिये क्रोध उठेगा उम्मीद टूटी। जब उम्मीद है तो कैसा लगता है? तुम सुख की सबसे ज्यादा उम्मीदें किस्से करते हो उन लोगों से जिनसे तुम्हारा तथा कथित प्रेम का रिश्ता है। उन्हीं से तो तुम कहते हो ना कि ये जिंदगी में सुख देंगे, खुशी मिलेंगे और जिससे तुमने उम्मीद है की उसी से तो हिंसा का रिश्ता बन गया। हम बड़े हिंसक लोग है, पूरी दुनिया से हमारा हिंसा का रिश्ता है।और जो हमारे जीतने करीब होता है हम उसके प्रति इतनी ज्यादा हिंसा से भरे होते हैं, क्योंकि इससे उतनी ज्यादा उम्मीदें होती हैं करीब होने का और यही है। बाप पड़ोसी से यी नहीं उम्मीद करेगा कि उसे पानी देगा बेटे की उम्मीद दिख रहे और जा है वही दुख है। इस जीत में जीना सिखो की हम भिखारी नहीं है जब भी तुम्हारे भीतर ये विचार आय दुनिया से कुछ पाना है कुछ अर्जित करना है की जिंदगी तो दौड़ने का और हासिल करने का नाम है। तभी स्मरण करने कि कोशिश करो की हासिल किए बिना भी तुम बहुत कुछ हो कि जो असली है मिला ही हुआ है। और उसके लिए तुम्हें किसी के प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं है।तुम्हे दुनिया से जा कर के अनुमति लेने की जरूरत नहीं है कि मैं कुछ कहूं या नहीं कहूँ।

 

 

 

दुनिया की नजर में तुम कुछ तभी होंगे जब तुम दुनिया के अनुसार काम करोगे। एक ठसक रखो, अपने भीतर की जैसी भी बहुत बढ़िया है, मैं इंकार की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं इस श्रद्धा की बात कर रहा हूँ के अस्तित्व मेरा हक है। यदि हूँ तो छोटा या बुरा या निंदनीय नहीं हो सकता।

दुनिया में कुछ भी ऐसा है जो हैं तो पर उसे होना नहीं चाहिए था। दुनिया में कुछ भी ऐसा है क्या कुछ भी ऐसा दिखादो छोटे से छोटा घास का तिनका कभी ऐसा है। क्या जो है उसे होना नहीं चाहिए था। जो भी कुछ है वो अपनी जगह है, जगह पर पुरा है तो ठीक है, वो कुछ बनकर ठीक नहीं होगा। ठीक है वो कुछ हासिल, करके जीने के काबिल नहीं बनेंगे। उसके होने में ही उसकी पात्रता है।

 

 

इंसान अकेला है जिससे लगता है। अपने भीतर ये भाव निकाल अपने भीतर से ये भाव निकालदो की मैं ठीक नहीं हूँ। यह हीनभावना हमारे भीतर बहुत गहरे बैठ गयी है। हम बड़ा छोटा अनुभव करते हैं, डर डर कर रहते हैं जब सब कुछ अपनी जगह पर है और स्वुस्थित है, तो ये संभव कैसे है कि तुम मैं ही कोई खोट होगा बताओ मुझे सूरज अपनी जगह पर है, मिट्टीअपनी जगह पर है छोटे मोटे कीड़े भी अपने जगह पर है। वो खुश है। कोई अड़चन नहीं है और कोई व्यवस्था भी नहीं है। आउट ऑफ प्लेस कुछ भी नहीं है तो तुम ही कैसे हो सकते हो?

 

 

 

 

तुम सुंदर पक्षियों की तो बात करते हो, कहते हो बड़े सुंदर है, बड़े सुंदर हैं, सुंदर जानवरों की बात करते हो पर जिनको तुम सुंदर नहीं है। भी कहते हैं, मान लो कोई घिनौना सा कीड़ा है। होते हैं। ना कई जिनको देखकर के ही उक्त हार्ट लगती है।वो हमारी दृष्टि है की हम किसी को सुन्दर बोलते है, किसी को कुरूप बोलते है, क्या उसके भीतर ये हिंता होती है कि मैं कुछ और बन जाऊं होती है। क्या वो मिट्टी में पड़ा रहता है और तब भी मरा नहीं। जा रहा तनाव मे की क्या यार, जिंदगी में कुछ हासिल नहीं किया और ये क्या रूप रंग है गंदा।

 

 

 

पर तुम हो जिसे अपना रूप रंग बदलने की बड़ी जरूरत है। तुम हो जिसे अपना व्यवहार अपना मन बदलने की बहुत जरूरत है। तुम हो जिसे जिंदगी तरक्की की और हासिलयत की जरूरत है।

जो भी कोई इस खेल में पड़ेगा वो धोखा ही धोखा खायेगा और इस बात से डर मत जाओ प्रभावित मत हो जाओ कि पूरी दुनिया ऐसे कर रही है तो सही होगा। तुम्हे क्या पड़ी है संख्या गिनने की?।तुम्हें क्या पढ़ी है ये देखने की कि सब लोग क्या कर रहे हैं? तुम्हें कितनी जिंदगियां जीनी है अपनी या सबकी? तुम ये देखो ना की तुम्हारे लिए क्या उचित है तुम्हारी एक ज़िंदगी तुम उसके लिए देखो क्या उचित है या तुम इसी ढेरों में पड़े रहोगे की सब करते हैं तो ठीक ही होगा तुम्हारे पास यदि समझने की योग्यता है। तुमने अर्जित नहीं की है। उपहार स्वरूप मिली है। बहुत बड़ी चीज़ है जो तुम्हें उपहार स्वरूप मिली है। जब तुम्हारे पास समझने की काबिलियत है तो फिर जिंदगी कैसे बितानी है? संसार को देख रेख कर या फिर इस समझ पर।

जानिए आचार्य प्रशांत से हमारी खुशियां दूसरों पर निर्भर क्यों होती है

अगर संसार को ही देख रेख कर और इन्हीं पर आकर्षित रहकर जीवन बिताना होता है। तो तुम्हारे भीतर समझ दी ही क्यों जाती है तुमने कभी यह देखा नहीं। तुम्हे तो फिर मशीन होना चाहिए था कि जैसे सब चल रहे हैं वैसे ही सारी मशीने एक जैसी चलती है तुम भी चलो पर तुम्हें कुछ ऐसा दिया गया है जो अद्भुत है।

 

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By Mr. Sandeep Rana

नमस्कार दोस्तों ! मै संदीप राना !  लेखक बस शब्दों से नहीं, विचारों से बात करता है। राजनीति, फाइनेंस ,इतिहास, और जीवन के हर कोने से जुड़े मुद्दों पर लिखना मुझे पसंद है। मेरा मकसद है जटिल बातों को आसान भाषा में आप तक पहुंचाना, ताकि पढ़ते-पढ़ते आप सिर्फ समझें नहीं, बल्कि सोचने पर मजबूर हो जाएं। 7 साल का वित्तीय अनुभव और जीवन की गहरी समझ ने मुझे चीजों को एक अलग नजरिए से देखने की आदत दी है। DSR Inspiration के ज़रिए मैं बस यही चाहता हूं कि हम मिलकर उन विषयों पर बात करें जो सच में मायने रखते हैं। अगर आप भी नए विचारों से रूबरू होना चाहते हैं, तो जुड़े रहे हमारे साथ। 😊 धन्यवाद् 

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